शाम ढलती है बेनूर सी उदासी में,
बारिस के बाद एक अजीब सा सन्नाटा |
इस वक़्त को और भी बोझिल बनता हुआ,
कल्पनाये जंगनुओ सी उड़ने लगती है शाम के धुंधलके में |
मध्यरात्रि के चंद्रग्रहण का अहसास पहले ही कराती शाम
निःशब्द अपने होठ सिले सिर्फ पलके झपकती है |
तृस्ना, मोह और रिस्तो की उलझनों को करती आत्मसात
पूर्णिमा की रात्रि में उठे ज्वार-भाटे सा संसय मन में दबती है |
ये शाम बोलती है चुप चल सुनती है विरह-गीत,
कुछ भूले हुए मृत्यपर्याय किस्सों में सोचती है यौवन |
याद दिलाती है वो साथ के पथिक विस्मित मनमीत,
रुग्ण से कुछ सपनो में भर्ती है नवजीवन |
शाम एक कड़ी है दिवस और रात्रि के बीच की,
और निषेध भी – दिवा की उषणता को रोकती है |
शाम एक प्रक्रिया है, सयम है और अनुभूति भी,
शाम खुद को रात्रि सी बनाने को धीरे-धीरे सींचती है |